Sunday, January 13, 2008

मुखौटे

मुखौटॆ


मुखौटॆ कभी लुभाते थे, हँसाते थे अपनी बनावट और सजधज से
और कभी इशारों ही इशारों में कह देते थे- बड़ी बड़ी बातें
समाज और संस्कृति की झलक
दिखाते थे आदमी को तमीज सिखाते थे आज आदमी पर भारी हैं
तरह-तरह के मुखौटे विरोधी भूमिका निभा रहे हैं बड़ी हुज्जत से इंसानियत को चिढा रहे हैं
आदमी को रोता देख चुपके-चुपके मुखौटे ठहाके लगाते हैं एक अदद जरुरत की तरह
मुखौटे चिपक गए हैं सभ्य होते आदमी के चेहरे पर
छिप गई है असलियत
मुखौटे के पीछे आदमी की पहचान खो गई है और आदमी है कि
बेबस नजर आता है अब आदमी में नही बचा है
इतना भी संवेदन कि
वह कर सके प्रेम या घृणा विरोध या समर्थन
वह बोल सके खुलकर अपनो से या रो ले अकेले में वह नहीं जुटा पा रहा है
इतना भी साहस कि
सड़क पर निकल सके
अपना चेहरा लिए हुए अपने व्यक्तित्व के साथ मुखौटे के बिना।
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